हाल ही में “थप्पड़” मूवी देखी जो सोचने पर मज़बूर कर देती है साथ ही इसमें पुरुष सत्तात्मक समाज की काफ़ी सच्चाई देखने को मिलती है लेकिन पुनर्विचार करने पर लगता है कि ये सब तो मात्र मूवी में ही देखने को मिल सकता है, वास्तविक जीवन में स्त्री उसी घर में कैद हाेकर रह जाती है। उसके उन कामों की गिनती नहीं होती जो वो रोज़ करती है अपितु वही काम शिकायतों के रूप में गिनायें जाते हैं जो वो करना भूल जाती है या कुछ काम ग़लत कर बैठती है।यदि उसकी कुछ इच्छायें नहीं नहीं जरूरतें, जिनकी वह पूर्ति चाहती है तब सहना पड़ता है ना जाने कितना दुर्वचन- कितना दुर्व्यवहार। उसकी ज़रा सी रोक-टोक करने पर उसे बार बार याद दिलायी जाती हैं उसकी सीमाएँ, वो क्या है न! हमारे समाज के पुरुषों को अपने कामों में दखल पसंद नहीं हैं। समाज को यदि परे रखकर वह इस बंधन से मुक्ति पाने की सोचे भी तो उसकी गोद भरने की साजिश रच दी जाती है, अब इतनी शक्ति तो ना वह एकत्र कर पायेगी कि अपने माँ- बाप पर बोझ बने तथा अपने दूसरे तथाकथित परिवार के साथ- साथ इतने बड़े समाज से लड़े। दिन- प्रतिदिन के तानों से घुटकर अगर वह “आत्मनिर्भर” होना भी चाहे तो उसके सामने शर्तों की लंबी लिस्ट रख दी जाती है जो उसे काम पर जाने से पहले व आने के बाद करने हैं। ऐसे में यदि उसके पास कोई संतान है तो उसकी मुश्किलें और बढ़ जाती हैं।हर बार उसको ही सलाह दी जाती है, थोड़ा सहन करना सीखो चाहे वह दर्द हो या अपमान। उसे मज़बूर किया जाता है अपनी इच्छाओं का दमन करने को। सास, ननद, बहू, भाभी जैसे इन सभी रिश्तों से ऊपर उठकर देखें तब ही एक औरत को समझा जा सकता है, क्यों हम ख़ुद के ही रूप का शोषण करने में लगे हैं? क्यों एक स्त्री दूसरी स्त्री की पीड़ा नहीं समझ पाती? मुझे कमरे में बैठी उस रोती हुई स्त्री का धुंधला चेहरा नज़र आता है, कैसे सहती होगी वह एक ही बार में इतनी सारी पीड़ा। समाज की चिंता व डर का जिम्मा क्यों एक स्त्री को ही लेना पड़ता है? एक स्त्री के प्रति कितना निर्दयी है यह समाज! यदि उनके रिश्ते में प्रेम नहीं है तो क्या औचित्य रह जाता है इस रिश्ते का? तथाकथित सुहाग की निशानी का? पल में ही कैसे उस इंसान के प्रति समर्पित हो जाती है जो उसका सम्मान करना ज़रूरी ना समझता हो! जब भी ऐसे रिश्तों के खोखलेपन को देखती हूँ ना जाने ऐसे कितने प्रश्न दिन- प्रतिदिन कचोटते रहते हैं कि कब एक स्त्री को वास्तविक मुक्ति प्राप्त होगी! अभी इस पड़ाव से बहुत दूर हूँ लेकिन उन तमाम स्त्रियों की पीड़ा को देखकर मन धंसने लगता है। क्या पितृसतात्मक समाज के इन पैतरों से बचा जा सकता है! क्या इन सब प्रश्नों का कोई हल मिल पायेगा!
Nice
Thank you 🙏🏻
Bahut badiya upasna…. 👌👌
Shukriya bhaiya! 🙂🙂
truly said ..!!
Shukriya💛